बुधवार, जनवरी 10, 2018

ऐण्ठ

आज प्रातः बिना नाश्ता किए, गंगानगर जाना हुआ। शिव चौक पर बस से उतरकर कृषि मण्डी में घुसते ही छोले कुलचे का ठेला था। चार कुलचों से तृप्त होकर, मैंने पैसे पूछे, उसने 15 रुपये काटकर 85 लौटाए। मैंने कहा 20 तो वाजिब ही हैं, उसने बताया - साहब मण्डी वाले पन्द्रह ही देते हैं। मैंने पाञ्च का सिक्का लौटाते हुए कहा- मैं तो बीस ही दूंगा।
बाजारवाद का करिश्मा है। स्थापित रेस्टोरेण्ट में अगर चालीस न, तो तीस तो लेगा ही।
विडम्बना है कि बाजारवाद की चकाचौंध में हम मोलभाव करने का साहस ही नहीं कर पाते, कि दकियानूसी न कहलाएं। वह सारी की सारी कंजूसी मेहनतकश और ईमानदार मजदूर पेशा पर उतारकर ऐण्ठते हैं। उसे भूखा रख कर हम कितना खुश होते हैं? पाञ्च रुपये बच गए। और उधर पचास का सिर मुण्डवाकर, शान से अपनी आधूनिकता का बखान करते हैं।
किधर जा रहे हैं हम ? ?
भूख तो सबको लगती है !!! 

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